पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२८३

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श्रीकृष्ण-जयन्ती कस-हृदय की दुश्चिता सा जगत् मे अन्धकार है व्याप्त, घोर धन है उठा भीग रहा है नीरद अपने नीर से मन्थर गति है उनकी वैसी व्योम में रुके हुए थे, 'कृष्ण-वण' को देख लें- जो कि शीघ्र ही लज्जित कर देगा उन्हे जगत् आन्तरिक अन्धकार से व्याप्त है उसका ही यह वाह्य रूप है व्योम मे उसे उजाले में ले आने को अभी दिव्य ज्योति प्रकटित होगी क्या सत्य ही सुर-सुन्दरी-वृन्द भी है कुछ ताक मे हो करके चञ्चला घूमती ह यहाँ- झाक झाक्कर रिसको हैं ये देखती छिडक रहा है प्रेमसुधा क्यो मेघ भी प्रसाद वाङ्गमय ॥२२६ ।।