पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३०

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और शैली भी काव्य के सापन मान हैं, मा य नही। मा य, क्थ्य-वस्तु और उसका भाव-मदेश ही रहेगा। गौतम बुद्ध ने यम की परिभाषा मे जो उक्ति दी है भापा और शैली पर भी घटित है वे पार उतरने- गतव्य पर पहुँचने तक नौका समान है, न कि मिर पर लाद कर ढोने के लिये । गन्तव्य पर पहुँचते पहँचते मारस्वत रानी, इडा भी बोल देती है-'वृप ववल धम का प्रतिनिधि उत्सग करेंगे जाकर' । अथच, समग्र छन्दोबद्ध वाङ्गमय को विशुद्ध काव्य कोटि मे नही लिया जा सकेगा। इति-वृत्त परका, समस्या-पूरक एव तत्तलीय शब्द शिल्पो की काव्यवत्ता पलायोटि मे ही रक्षणीय है । कला अशात्मिका है उस अकलित महिमावान अकाल की सीमा से वह पर्याप्त दूर है जिससे अधिवामित विशुद्ध-काव्य जरा मरण के अतीत रहता है । कला कोटि वाले काव्य विद्याधीन हैं-विकल्प-गुणित है और वह, सकल्प- गुणित एव स्वाधीन है। सकुचित असीम अमोघ शक्ति' जीवन को बापामय पथ पर ले चले भेद से भरी भक्ति । या कभी अपूण अहन्ता मे हो' रागमयी सी महासक्ति । व्यापकता नियति प्रेरणा बन अपनी सीमा मे रहे बन्द, सवज्ञ ज्ञान का क्षुद्र अश विद्या बन कर कुछ। रचे छन्द । कतृत्व सकल वन कर आवे नश्वर छाया सी ललित कला, । नित्यता विभाजित हो पल पल मे काल निरन्तर चले ढला। तुम समझ न मको, वुराई से शुभ इच्छा की है बडी शक्ति । हो विफल तक से भरी युक्ति । (इडा कामायनी) कला-कोटि वाली प्रस्तुतिया, ललित मूत कलाओ की भाति अल्पायुषी मच्छिल्प की आकृतिया कही जा सकती है सत्पात्मिका अनुभूति के सुवण से ढली प्रतिभामयी काव्य प्रतिमा नही। उन्हे, अनुभूति की उद्रिक्तावस्था मे हृद्गुहागत सत्य के प्रकटीकरण किंवा उन्मीलन के अथ कथमपि नहीं लिया जा सकेगा। अनुभूति प्रवान एक असाधारण मननात्मक अवस्था में श्रेय-सत्य जो प्रेय-कल्प ग्रहण करता है वही 1 7 - - १ मवकतृ त्वमवमत्व पूर्णत्व नित्यत्व व्यापकत्व ' शक्तय सकोच गृह्णाना यथा कम क्ला विद्या राग कार नियति रूपतया भान्ति । (प्रत्यभिना हृदय सूत्र ९ की टीका) प्राक्कथन ॥३५॥