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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२९४

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खोलो द्वार शिशिर-कणो से लदी हुई, कमली के भीगे हैं सर तार, चलता है परिश्चम का मारत, लेकर शीतलता का भार । भीग रहा है रजनी का वह, सुदर कोमल कवरी भार, मरण किरण सम, कर से छू लो, खोलो प्रियतम । गोलो द्वार । घूल लगी है, पद पांटो से निधा हुमा, है दुःख अपार, विसी तरह से भूला भटका मा पहुंचा हूं तेरे द्वार । डरो न इतना, धूलि धूसरित होगा नही तुम्हारा द्वार, घो डाले हैं इनवो प्रियवर, इन आंम्पो से बांसू ढार । मेरे धूलि लगे पैरो से, इतना करो न घृणा प्रकारा, मेरे ऐसे घृल पणो से, व तेरे पद को अवकाग। पैरो हो से लिपटा रिपटा पर रूंगा निज पद निर्धार, यव तो छाह नहीं मरता हूँ, पावर प्राप्य तुम्हारा द्वार । सुप्रभात मेरा भी होने, इन रजनी या दुम अपार मिट जावे जो तुमको देनू, योगे प्रियतम । सोलो द्वार ॥ झरना ॥२३७॥