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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३१

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क्सिी वादसीमा मे मान्य के प्रग्रहीत होने से क्या ऐमा सम्भव है। अभिव्यक्ति को प्राचीनतम वाङ्गमयी विधा काव्य है, जा देश काल से अवच्छिन्न और वाषित नही । जीवन और भूगोल पर विभिन्नताओ के चलते काव्य के उच्चार और लिपि को भापाय ता अनेक है रिन्तु अनुभूति की भाषा समग्र विश्व को एक ही है। कौन जाने रामष्टि- चेतना के विकास म सोई ऐसा क्षण भी आ जाय जव मानर अनुभूति की भापा बोलने और समझने लगे और आज की नाना वण विक - मयी लिपियो का स्थान समग्न भावचय गर्भित सकरप की एक अवर्णालिपि ले ले जिमफे अक्षर वस्तुत अक्षर हो। अध्यात्म जौर अधिभूत किंवा जड और चैतन्य के अथ मूत्य तब भिन न होगे उनका एक अद्वय भाव गत महामिलन होगा । आज विज्ञान के क्षन म उठती तत्व जिज्ञासा की लहरी विमी दिन उत्ताल तरग वन ऐसी कल्पना का साकार कर सकती है। फिर क्या नानाविध कृनिम और मानय-दृष्टि के कुचनी से सिंची मीमा रेखाएं और उनके आग्रह विग्रह विद्यमान रह सकेंगे? चेतना के भौतिक विभाजन को महानि का अवमान उम एकस्वरा अनुभृति को भापा के जागरण से असम्भव नही, सयोज्य है- चेतनता का भौतिक विभाग कर जग को बांट दिया विराग चिति का स्वरूप यह नित्यजगत वह रूप बदलता है शत शत कण विरह मिल्नमय नृत्य निरत उत्लासपूर्ण आनन्द सतत तल्लीन पूण है एक राग झकृत है केवल 'जाग जाग' आतर-स्पश के ग्रहण प्रसारण की प्रक्रिया भी अनेक नही । मुतराम वैसे वाङ्गमय का प्रयोजन सावभौम और सावायुप होगा जिसम अनुभूति की भाषा जागृत रह कर बैखरी म मुखर होती है । भावा की प्रवणता को प्रखर बनाने म जहा शब्द साधन होते है वहा शब्दो का गुम्फन साध्य नहीं होगा। छन्द व्याकरण के व्यास और अद्धव्यास यन्नो को ले भाव प्रवणता और अनुमति निष्ठा का परिमापन भी सम्भव नही, किन्तु, उम समीक्षा क्रम के ये अपरिहाय आग्रह है जो अपरिमेय को मापने की चिन्ता को ही अध्यवसाय बना कर चलती है । प्रसाद वाङ्गमय ॥ ३८॥ ,