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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३०१

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तरल, कोकनद मधु धारा सी विश्व में बहती हो किस ओर? प्रकृति को देती परमानन्द, उठाकर सुन्दर सरस हिलोर । स्वर्ग के सूत्र सदृश तुम कौन, मिलाती हो उससे भूलोक? जोडती हो कैसा सम्बन्ध, बना दोगी क्या विरज विशोक । सुदिनमणि-वलय विभूपित उपा- कर का सक्त-- कर रही हो तुम किसको मधुर, किसे दिखलाती प्रेम निकेत? चपल | ठहरो कुछ लो विश्राम, चल चुकी हो पथ शून्य अनन्त, सुमनमन्दिर के खोलो जगे फिर सोया वहा वसत । सुन्दरी के द्वार, प्रसाद वाङ्गमय ॥२४४॥