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विषाद कौन, प्रकृति के करुण काव्य सा, वृष-पत्र की मधु छाया मे। लिखा हुआ सा अचल पडा है, अमृत सद्दश नश्वर काया मे । अखिल विश्व के कोलाहल से, दूर सुदूर निभृत निजन में। गोधूलो के मलिनान्चल मे, कौन जङ्गली वैठा वन मे। शिथिल पडी प्रत्यञ्चा किसकी, धनुप भग्न सन छिन जाल है। वशी नीरव पडी घूल घूल म, वीणा वा भी बुरा हाल है। विमके तममय अन्तरतम मे, दिल्ली की झनकार हो रही। स्मृति सन्नाटे से भर जाती, चपला ले विश्राम सो रही । झरना ॥२४५॥