पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३०४

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वालू की वेला आंख वचाकर न किरकिरा कर दो इस जीवन का मेला । कहां मिलोगे ? क्सिो विजन मे ?– हो भीड का जव रेला। दूर । कहाँ तक दूर? थका भरपूर चूर सब अग हुआ । दुगम पथ मे विरथ दौडकर खेल न था मैंने खेला। पहते हो 'कुछ दुख नही', हाँ ठीक, हंसो से पूछो तुम | प्रश्न करो टेढो चितवन से, रिस किसको क्सिने झेला? आने दो मीठी मीडो से नूपुर की झनकार, रहो। गलवाही दे हाय वढायो, वह दो प्याला भर दे, ला । निठुर इन्ही चरणो म में रत्नाकर हृदय उलीच रहा । पुरक्ति, प्लापित रहो, यनो मत सूमी वार को वेला ॥ झरना ॥२४॥