पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३१०

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विखरा हुआ प्रेम अरुणोदय में चचल होकर, व्याकुल होकर विकल प्रेम से, मायामयी सुप्ति मे सोकर, मति अधीर हो अवक्षेम से, टुकडे टुकड़े कर फवा था जीवन का निगूढ आनन्द, नील निशा के शून्य गगन म लो फैलाकर फिर छल छन्द, चनवर तारा निकर मनोहर उदय हुया वह उसी नियम से। रिक्त हुए हम व्यथ फेंकर विक्ल हुए तम अतुल विषम से। प्रणयी प्रणत वन में क्यापर दुवलता निज समझ, क्षोभ से, जीवन मदिरा कैसे रोकर, भरूं पात्र में तुच्छ लोभ से- हाय ! मुझे निष्किच्चन क्यो कर डाला रे । मेरे अभिमान, वही रहा पायेय, तुम्हारे इस अनन्त पथ का अनजान, बूंद बूंद से सीची, पर ये, भीगेंगे न सरल अणु तुम से । सोजो अपना प्रेम सुधावर, प्लावित हो भव शीतल हिम से ॥ सरना