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स्वभाव दूर हटे रहते थे हम तो आप ही क्यो परिचित हो गये? न थे जब चाहते- हम मिलना तुमसे। न हृदय मे वेग था स्वय दिखा कर सुन्दर हृदय मिला लिया दूध और पानी सा, अव फिर क्या हुआ- देकर जो कि खटाई फाडा चाहते? भरा हुआ था नवल मेघ जल विन्दु से, ऐमा पवन चलाया, क्यो बरसा दिया? शून्य हृदय हो गया जलद, सर प्रेम-जल- देकर तुम्हे । न तुम कुछ भी पुलक्ति हुए । मरु-धरणी सम तुमने सब शोपित किया। क्या आशा थी आशा कानन को यही? चन्चल हृदय तुम्हारा केवल खेल था, मेरी जीवन मरण समस्या हो गई। डरते थे इसको, होते थे सकुचित 'कभी न प्राटित तुम स्वभाव वर दो पभी।' - परता ॥ २५५॥