पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३१४

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भरा जी तुमको पाकर भी न, हो गया छिछले जल का मीन। विश्व भर का विश्वास अपार, सिन्धु सा तैर गया उस पार। न हौ जब मुझे को ही संतोष तुम्हारे इसमें क्या है दोष ? • झरना ।।२५७।।