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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३१५

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अनुनय उसी स्मृति-सौरभ मे मृगमन मस्त रहे यही है हमारी अभिलापा सुन रीजिये । शीतल हृदय सदा होता रहे आंसुओ से छिपिये उसी में मत बाहर हो भीजिये । हो जो अवकाश तुम्हे ध्यान कभी आवे मेरा अहो प्राणप्भारे, तो कठोरता न कोजिये । क्रोध से, विपाद से, दया से पूर्व प्रोति ही से किसी भी बहाने से तो याद किया कीजिये । प्रसाद वाङ्गमय ।। २५८॥