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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३१६

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प्रियतम । क्यो जीवनधन । ऐसा ही है न्याय तुम्हारा क्या सवय ? लिखते हुए लेवनी हिलती, कॅपता जाता है यह पन । औरो के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसरा मुझको दुख नही। जिसके तुम हो एक सहारा, वही न भूला जाय कही। निदय होकर अपने प्रति, अपने को तुमको सौंप दिया। प्रेम नही, वरणा करने को, क्षण भर तुमने ममय दिया । अव से भी तो अच्छा है, अब और न मुये क्रो बदनाम । नीडा तो हो चुकी तुम्हारी, मेरा क्या होता है काम? स्मृति को लिये हुए अन्तर मे, जीरन कर देंगे नि शेष । छोडो, मर दिखलामो मत, मिल जाने का यह लोभ विशेष ॥ कुछ भी मत दो, अपना ही जो मुये वना लो, यही करो। रक्यो जव तर आंखो में, फिर और ढार पर नही ढरो।। कोर बरौनी का न लगे हो, इम कोमल मन का मेरे । पुतली बन पर रहे चमवते, प्रियतम । म ग में तेरे ॥ , झरना ॥२५९॥