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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३२८

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आशालता तुम्हारी करुणा ने प्राणेश ! बनाकर नव मनमोहन वेश ।। दीनता को अपनाया, उसी से स्नेह वढाया, लता अज्ञात बढ़ चली साथ । मिला था करणा का शुभ हाथ ॥ नित्य की सन्व्या और प्रभात । स्वणमय जव होता रवि गात ।। व्योम ने रङ्ग खिलाया, विश्व ने व्यथ नहाया, स्वणघट में जल भर कर कान्त । दीनता लाती थो अश्रान्त ।। दया का स्पर्श मात्र अभिराम । बनाता उसे, सुरभि का धाम || उसी जल से नहलाया, मधुप गण को बुलवाया, निछावर करते थे जो प्राण । विना फूलो के पाये घ्राण ॥ . झरना ॥२७१॥