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बहुत दिन तक सिञ्चन का काय । हुआ करता अविरल अनिवाय ।। युगल ही अकुर आया, लता ने और न पाया, गई करुणा भी इक दिन कब । कहा अनखाकर उसने खूब ।। "तुम्हारी आशालता सिंचाव । बहुत ले चुकी, न देती दाव ।। सीचकर क्या फल पाया, फूल भी हाथ न आया" नील नीरद माला की दृष्टि | दीनताकी, करती थी वृष्टि ।। प्रमाद वाङ्गमय ।। २७२॥