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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३३०

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सुधासिंचन बहुत दिन से था हृदय निराश, और अब तो है समय नही। व्यथा मै सब कह दूंगा आज- सुनो प्रियतम । रुक जाव यही ॥ मचलता है यह मन, जो प्राण । सम्हालंगा मैं इसे नही । क्हे देता हूँ दूंगा छोड- भाग्य पर, इसको जाय कही । तुम्हारा शीतल सुप-परिरम्भ, मिलेगा और न मुझे कही। विश्व भर का भी हो व्यवधान, आज वह बाल वरावर नही । स्फूति से बदले सारी क्रान्ति शान्ति म भ्रान्ति न रहे कही। हृदय-क्षत मलयज से मिल जाय सुमन भी समता पावे नहीं। रागिनी गावे तुङ्ग तरन रहर सी, हृदय पपोधि यही । घटा से निकले बम नवचन्द्र, सुधा से मोची जाय मही ।। शरना ॥२७३1