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-- तुम - जीवन जगत के, विकास विश्व वेद के हो, परम प्रकाश हो, स्वय ही पूण काम हो । विधि के विरोध हो, निषेध की व्यवस्था तुम खेद भय रहित, अभेद, अभिराम हो । पारण तुम्ही थे, अब कम हो रहे हो तुम्ही, धम कृपि मम के नवीन घनश्याम हो, रमणीय आप महामोदमय धाम तो भी, रोम रोम रम रहे पैसे तुम राम हो? बुद्धि के, विवेक के, या ज्ञान, अनुमान के भी आये जो पतङ्ग तुम्हे देखने जले गये, बलिहारो माधुरी अनन्त कमनीयता को, रूपवाले लोटने को पैरो के तले गये। शका लगी होने किसी को तो कोई सपने सा जपने लगा है आप भूल मे चले गये, छलने के लिए तो स्वांग बहुरूपिए के तुमने अनेक लिए तुमही छले गये। प्रसाद वाङ्गमय ।। २७४।।