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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३३२

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1 सुमन समूहो मे सुहास करता है कौन, मुकुलो मे कौन मकरन्द सा अनूप है, मदु मलयानिल सा माधुरी उपा मे कोन, स्पश करता है, हिमकाल मे ज्यो धूप है। मान है तुम्हारा, अभिमान है हमारा, यह 'नही नहीं करना भी 'हा' का प्रतिरूप है, चूंघट की ओट में छिपा है भला कैसे कभी, फूटकर निखर बिखरता जो रूप है। हो कर अतृप्त तुम्हे देखने को नित्य नया रूप दिये देता हूँ पुराना छोड़ने के लिए, तुम्हे भी न होता परितोप कभी मेरे जान, बनते ही जाते हो रहस्य जोडने के लिए। कज कामना की आसें आलस से बन्द सोई चन्द उपहारो से भी मुंह मोडने के लिए, बन्धन में बंधता प्रतिज्ञा की प्रतीति किये, तुम हँस देते, वस, उसे तोडने के लिए। दीन दुखियो को देख आतुर अधीर अति करणा के साथ उनके भी कभी रोते चलो, थके श्रमी जीवो के पसीने भरे सीने लग जीने को सफल करने के लिए सोते चलो। भृले, भोले बालको के इस विश्व खेल में भी लीला ही से हार और श्रम सब खोते चलो, सुसी कर विश्व, भरे स्मित सुपमा से मुख सेवा सकी हो, तो प्रसन तुम होते चलो। 1 शरना ॥२७५॥