पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३३५

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होली की रात वरसते हो तारो के फूल छिपे तुम नील पटी म कौन ? उड रही है सौरभ को धूल कोक्लिा कैसे रहती मौन । चादनी धुली हुई है आज बिछलते है तितली के पख । सम्हलकर, मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असख । तरल हीरक लहराता शान्त सरल आशा सा पूरित ताल । सिताबी छिडक रहा विधु कात विछा है सेज कमलिनी जाल । पिये, गाते मनमाने गीत टोलिया मधुपो की अविराम । चली आती, कर रही अभीत कुमुद पर बरजोरी विश्राम । , प्रसाद वाङ्गमय ।। २७८॥