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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३३७

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झील मे झील मे झाई पडती थी, श्याम-बनशाली तट की कान्त । चन्द्रमा नभ म हँसता या, बज रही थी वीणा अथान्त ॥ तृप्ति मे आपा बढती थी, चन्द्रिका म मिलता था ध्वान्त । गगन मे सुमन खिल रहे थे, मुग्ध हो प्रकृति स्तब्ध थी शान्त ।। निभृत था, पर हम दोनो मे वृत्तियां रह न सकी फिर दान्त । कहा जब व्याकुल हो उनसे- "मिलेगा कब ऐसा एकान्त हाथ लिया मैने, हुए वे सहसा शिथिल नितान्त ! मलय ताडित किसलय कोमल हिल उठी उँगली, देखा, भ्रान्त ॥ झील, झाई, नभ, शशि, तारा, विटप इगित करते अश्रान्त । तारिका तरल झलक्ती थी, अष्टमी के शारदशशि प्रान्त ॥ 71 हाथ मे प्रसाद वाङ्गमय ॥२८०॥