सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रत्न मिल गया था पथ मे वह रत्न। किन्तु मैंने फिर किया न यल ।। पहल न उसमे था बना, चढा न रहा खराद । स्वाभाविकता मे छिपा, न था कलक विपाद ।। चमक थी, न थी तडप की झोक । रहा केवल मघु स्निग्धालोर ॥ मूल्य था मुझे नही मालूम । विन्तु मन लेता उसको चूम ॥ उसे दिखाने के लिए, उठता हृदय कचोट। और रुके रहते समय, करे न कोई खोट ।। बिना समझे ही रख दे मूत्य । न था जिस मणि के कोई तुत्य ॥ जान घर के भी उसे अमोल। बढा कौतूहल का फिर सोल । झरना ॥२८१॥