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कुछ नहीं हंसी आती है मुझको तभी, जब कि यह कहता कोई कही- अरे सच, वह तो है कगाल, अमु धन उसके पास नहीं। सकल निधियो का वह आवार, प्रमाता अखिल विश्व का सत्य, लिये सब उसके बैठा पास, उसे आवश्यकता ही नही। और तुम लेकर फेंकी वस्तु, गव करते हो मन मे तुच्छ, कभी जव ले लेगा वह उसे, तुम्हारा तब सब होगा नहीं। तुम्ही तब हो जाओगे दीन, और जिसका सब सचित किए, साथ बैठा है सब का नाथ, उसे फिर कमो कहा शान्त रत्नाकर का नाविक, गुप्त निधियो का रक्षक यक्ष, कर रहा वह देखो मृदु हास, और तुम कहते हो कुछ नही । को रहो ? झरना ॥२८३॥