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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३४४

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विजन बन, आधी रजनी गई। मधुर मुरली ध्वनि चुप हो गई। थो मुझको अज्ञात, शुक्ल पक्ष की अष्टमी, बीते कैसे रात, अस्त हो गई कौमुदी- राह मे ही, वह भी है नई। विजन बन आधी रजनी गई। १९ झरना ॥२८९॥