पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३४६

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वेदने ठहरो। , सुखद थी पीडा, हृदय की क्रीडा, प्राण मे भरी भयानक भक्ति । मनोहर मुख था, न मुझको दुख था, रही विप्रयोग मे न विरक्ति । वेदना मिलती, ओपधी घुलती, मिलन का स्वप्न कराता भान। नवल निद्रा का, मधुर तन्द्रा का, व्यथा आरम्भ, वही अवसान । न मुझसे अडना, कहाँ का लडना, प्राण है केवल मेरा अस्त्र । वेदने ठहरो। क्लह तुम न करो, नहीं तो कर दूंगा नि शस्न ॥ झरना ।। २९१॥