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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३४७

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धूल का खेल धूप थी कडी पवन था उष्ण, धूलि को भी थी कमी नहीं । भूल कर विश्व, खेल में व्यस्त, रहे हम उस दिन कभी कही ॥ विमल उल्लास, न वह कथनीय, न बाधा उसमे कही रही । न था उद्देश्य, न था परिणाम, मिलेगा वह आनन्द कही। शरद वी शान्त नदी के खेल सदृश होता अनुभूत वही । खेल की नाव जही ले जाय, स्कावट तो थी कही नही । प्रलोभन पुञ्ज समादर सहित, दिये थे तुमने कौन नही। अक मे लिया, वक्ष था शीत तुम्हारा, हिम से वढा कही। प्रसाद वाङ्गमय ।।२९२॥