पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३६१

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निर्झर सा झिर झिर करता माधवी कुञ्ज छाया मे चेतना वही जाती थी हो मन्त्र मुग्ध माया म । पतझड था, झाड खडे थे सूखी सी फुलवारी मे किसलय नव कुसुम बिछा कर आये तुम इस क्यारी म। शशि मुख पर घूघट डाले अचल मे दीप छिपाये जीवन की गोधूली मे कौतूहल से तुम आये। धन मे सुन्दर बिजली सी बिजली मे चपल चमक सी आखो मे काली पुतली पुतली म श्याम झलक सी प्रतिमा मे सजीवता सी वस गयी सुछवि आखो मे थी एक लकीर हृदय मे जो अलग रही लाखो मे । माना कि रूप सीमा है सुन्दर । तव चिर यौवन मे पर समा गये थे, मेरे मन के निस्सीम गगन मे । लावण्य शेल राई सा जिस पर वारी बलिहारी उस कमनीयता क्ला को सुषमा थी प्यारी प्यारी। प्रसाद वाङ्गमय ।। ३०८॥