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कामना सिन्धु सिन्धु लहराता छवि पूरनिमा थी छाई रतनाकर बनी चमकती मेरे शशि की परछाई। छायानट छवि-परदे मे सम्मोहन वेणु बजाता सध्या-युहुकिनि-अञ्चल मे पोतुक अपना कर जाता। मादकता से आये तुम सज्ञा से चले गये थे हम व्याकुल पडे विलखते थे, उतरे हुए नशे से । अम्बर असीम अतर मे चन्चल चपला से आकर अब इन्द्रधनुष सी आभा तुम छोड गये हो जाकर । मकरन्द मेष माला सी वह स्मृति मदमाती आती इस हृदय विपिन की कलिका जिसके रस से मुसक्याती। है हृदय शिशिरकण पूरित मधु वर्षा से शशि । तेरी मन मन्दिर पर बरसाता कोई मुक्ता को ढेरी। प्रप्रसाद वाङ्गमय ॥३१४॥