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शीतल समीर आता है कर पावन परस तुम्हारा मैं सिहर उठा करता हूँ बरसा कर आसू धारा मधु मालतियां सोती हैं कोमल उपधान सहारे मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर गिनता अम्बर के तारे। मेरा निष्ठुर । यह क्या छिप जाना? भी कोई होगा प्रत्याशा विरह-निशा की हम होगे औ' दुख होगा। जव शात मिलन सन्ध्या को हम हेम जाल पहनाते काली चादर के स्तर का खुलना न देखने पाते। अब छुटता नही छुडाये रंग गया हृदय है एमा आसू से धुला निवरता यह रग मनावा कैमा। कामना कला की विक्सी कमनीय मूर्ति बन तेरी सिंचती है हृदय पटल पर अभिलाषा बनकर मेरी। बानू ॥३RK