पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३७०

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और सहारा अवकाश शून्य फैला है है शक्ति अपदाथ तिरूंगा में क्या हो भी कुछ कूल किनारा। तिरती थी तिमिर उदधि मे नाविक ! यह मेरी तरणी मुख चन्द्र किरण से खिचकर आती समीप हो घरणी। सूखे सिक्ता सागर मे यह नैया मेरे मन की आँसू की धार बहाकर खे चला प्रेम बेगुन की। यह पारावार तरल हो फेनिल हो गरल उगलता मथ डाला किस तृष्णा से तल मे बडवानल जलता। श्वास मलय मे मिल कर छाया पथ अन्तिम किरणें बिखरा कर हिमकर भी छिप जायेगा। छू आयेगा धूल कणो मे चमकूँगा सौरभ हो उड जाऊँगा पाऊँगा कही तुम्हे तो ग्रहपथ मे टकराऊंगा। इस यान्त्रिक जीवन मे क्या ऐसी थी कोई क्षमता जगती थी ज्योति भरी सी। तेरी सजीवता ममता। आँसू ॥३१७॥