पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३७२

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दुख सुख मे उठता गिरता ससार तिरोहित होगा मुड कर न कभी देखेगा किसका हित अनहित होगा। मानव जीवन वेदी पर परिणय हो विरह मिलन का दुख सुख दोनो नाचेंगे खेल आख का मन का। इतना सुख ले पल भर मे जीवन के अन्तस्तल से तुम खिसक गये धीरे से रोते अव प्राण विक्ल से। क्यो छलक रहा दुख मेरा ऊपा की मृदु पलको मे हां, उलझ रहा सुस मेरा सन्ध्या की घन अलको मे। मन मे लिपटे सोते थे सुख दुख दोनो ही ऐसे चन्द्रिका अंधेरी मिलती म जैसे। मालती कुज्ज अवकाश असीम सुखो से आकाश तरग वनाता हँसता सा छायापथ मे नक्षत्र समाज दिखाता। आसू १३१९॥