पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नीचे विपुला धरणी है दुख भार वहन सी करती अपने खारे आसू से करुणा सागर को भरती। धरणी दुख माग रही है आकाश छीनता सुख को अपने को देकर उनको हूँ देख रहा उस मुख को। इतना सुख जो न समाता अन्तरिक्ष म, जल थल मे उनकी मुट्ठी मे बन्दी था आश्वासन के छल मे। दुख क्या था उनको, मेरा जो सुख लेकर यो भागे सोते लेकर जब रोम तनिक सा जागे। मे चुम्बन सुख मान लिया करता था जिसका दुख था जीवन मे जीवन में मृत्यु बसी है जैसे बिजली हो धन मे। उनका सुख नाच उठा है यह दुख द्रुम दल हिलने से शृगार चमकता उनका मेरी करुणा मिलने से । हो उदासीन दोनो से दुख सुख से मेल करायें ममता की हानि उठाकर दो स्ले हुए मनायें। प्रसाद वाङ्गमय ।। ३२०॥