पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३७४

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चढ़ जाय अनन्त गगन पर वेदना जलद की माला रवि तीव्र ताप न जलाये हिमकर का हो न उजाला । नचती है नियति नटो सो सी करती इस व्यथित विश्व आगन मे अपना अतृप्त मन भरती। कन्दुक क्रीडा सन्ध्या की मिलन प्रतीक्षा कह चलती कुछ मनमानी ऊपा की रक्त निराशा कर देतो अन्त कहानी । "विभ्रम मदिरा से उठकर आओ तम मय तर मे पाओगे कुछ न, टटोलो अपने विन सूने घर मे। इस शिथिल आह से खिंचकर तुम आओगे-आओगे इम बढी व्यथा को मेरी रोमोगे अपनायोगे।"