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वेदना विकल फिर आई मेरी चौदहो सुख कही न दिया दिखाई विथाम कहाँ जीवन मे! भुवन मे उच्छ्वास और आँसू मे विश्राम थका सोता है रोई आंखो मे निद्रा बनकर सपना होता है। निशि, सो जावें जब उर मे ये हृदय व्यथा आभारी उनका उन्माद सुनहला सहला देना सुखकारी। तुम स्पश हीन अनुभव सी नन्दन तमाल के तल से जग छा दो श्याम-लता सो तन्द्रा पल्लव विह्वल से। सपनो की सोनजुही सर बिखरें, ये बन कर तारा सित सरसिज से भर जावे वह स्वगङ्गा की धारा नीलिमा शयन पर बैठी अपने नभ के आगन मे विस्मृति का नील नलिन रस वरसो अपाङ्ग के धन से। प्रसाद वाङ्गमय ।। ३२२॥