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चिर दग्ध दुखी यह वसुधा आलोक मांगती तब भी तम तुहिन बरम दो कन कन यह पगली सोये अब भी। विस्मृति समाधि पर होगी वर्षा कल्याण जलद की सुख सोये थका हुआ सा चिन्ता छुट जाय विपद की। चेतना लहर न उठेगी जीवन समुद्र थिर होगा सन्ध्या हो सग प्रलय की विच्छेद मिलन फिर होगा। रजनी की रोई आंखें आलोर बिन्दु टपकाती तम की काली छलनाएं उनको चुप चुप पी जाती। यह कैसी सुम्व अपमानित करता सा जव व्यङ्गय हंसी हंसता है चुपये से तर मत रो तू परवशता है। अपने आंसू की अञ्जलि आगो मे भर क्यों पीता नक्षत्र पतन के क्षण उज्ज्वर होरर है जीता। आंम् ॥३३॥ म