पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३८२

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उद्वेलित तरल तरगे मन की न लौट जावेंगी हा, उस अनन्त कोने को नहला आवेगी। वे सच जल भर लाते हैं जिसको छूकर नयनो के कोने उस शीतलता के प्यासे दीनता दया के दोने। फेनिल उच्छ्वास हृदय के उठते फिर मधुमाया मे सोते सुकुमार सदा जो पलको की सुख छाया मे । आसू वर्षा से सिंचकर दोनो ही कूल हरा हो उस शरद प्रसन्न नदी मे जीवन द्रव अमल भरा हो। जैसे सरिता के तट पर जो जहां खडा रहता है विधु का आलोक तरल पथ करता है। सन्मुख देखा जागरण तुम्हारा त्यो ही देकर अपनी उज्ज्वलता बूंदो से भी हर लेता सब पकिलता। इन छोटी इस छोटी सी सीपी मे रत्नाकर खेल रहा हो करुणा की इन बूंदो में आनन्द उँडेल रहा हो। आंसू ॥ ३२९।-