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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३८३

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तब वह मेरे जीवन का जलनिधि वन अधकार उमिल हो आकाशदीप सा तेरा प्रकाश झिलमिल हो। हैं पड़ी हुई मुंह ढक कर मन की जितनी पीडाएँ, वे हंसने लगें सुमन सी करती कोमल क्रीडाएँ। तेरा आलिंगन कोमल मृदु अमरबेलि सा धमनी के इस बधन म जीवन ही हो न अकेले । हे जन्म जन्म के जीवन साथी ससृनि के दुख मे पावन प्रभात हो जावे जागो आलस के सुख में। जगती का कलुप अपावन तेरी विदग्धता पावे फिर निखर उठे निर्मलता यह पाप पुण्य हो जावे। सपनो की सुख छाया मे जव तन्द्रालस ससृति है तुम कौन सजग हो आई मेरे मन मे विस्मृति है। प्रसाद वाङ्गमय ॥ ३३०॥