पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३८९

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निज अलको के अन्धकार मे तुम कैसे छिप आओगे? इतना सजग कुतूहल | ठहरो, यह न कभी बन पाओगे | आह, चूम लूं जिन चरणो को चांप-चाप कर उन्हे नही- दुख दो इतना, अरे अरुणिमा ऊपा सी वह उघर वही । वसुधा चरण चिह्न सी बन कर यही पडी रह जावेगी। प्राची रज कुकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी। देख न लें इतनी ही तो है इच्छा ? लो सिर झुका हुआ। कोमल किरन-उँगलियो से ढंक दोगे यह दृग खुला हुआ। फिर कह दोगे, पहचानो तो मैं हूँ कौन वताओ तो। किन्तु उन्ही अधरो से, पहले उनकी हंसी दबानो तो। सिहर भरे निज शिथिल मृदुल अचल को अधरो से पकडो । वेला वीत चली है चचल बाहु-लता से आ जकडो । - ? तुम हो कौन और मैं क्या हूँ इसमे क्या है धरा, सुनो, मानस जलधि रहे चिर चुम्बित- मेरे क्षितिज | उदार बनो। प्रसाद वाङ्गमय ॥३३६॥