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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३९०

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- मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी, मुरझाकर गिर रही पत्तिया देखो कितनी आज घनी । इस गम्भीर अनन्त नीलिमा मे असख्य जीवन-इतिहास- यह लो, करते ही रहते है अपना व्यङ्गय मलिन उपहास । तब भी कहते हो-कह डाल दुबलता अपनी बीती । तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती। किन्तु कही ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले- अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले । यह विडम्बना । अरी सरलते तेरी हंसी उडाके मै । भूले अपनी, या प्रवञ्चना औरो को दिखलाऊँ मैं । उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ मधुर चादनी रातो की। अरे खिलखिला कर हंसते होने वाली उन बातो की । मिला कहा वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया ? आलिङ्गन मे आते आते मुसक्या कर जो भाग गया? जिसके अरुण कपोलो की मतवालो सुन्दर छाया मे । अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया मे । उसकी स्मति पाथेय बनी है थके पथिक की पन्था की। सीवन को उधेड कर देखोगे क्यो मेरी कन्था की? छोटे से जीवन की कैसे बडी कथाएं आज कहूँ? क्या यह अच्छा नही कि औरो की सुनता में मौन रहूँ ? सुनकर क्या तुम भला करोगे-मेरी भोली आत्म कथा ? अभी समय भी नही-थकी सोई है मेरी मौन व्यथा । लहर ॥३३७