पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३९१

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अरी बरुणा की शान्त कछार । तपस्वी के विराग की प्यार। सतत व्याकुलता के विधाम, अरे ऋपियो के कानन कुञ्ज जगत नश्वरता से लघु त्राण, लता, पादप सुमनो के पुज्ज तुम्हारी कुटियो मे चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार । स्वग की वसुधा से शुचि संधि, गूंजता था जिससे ससार । अरी वरणा की शान्त कछार । तपस्वी के विराग की प्यार । तुम्हारे कुजो म तल्लीन, दशनो के होते थे वाद । देवताभो के प्रादुर्भाव, स्वग के स्वप्नो के सवाद । स्निग्ध तर की छाया मे बैठ परिपदें करती थी सुविचार- भाग क्तिना लेगा मस्तिष्क, हृदय का कितना है अधिकार? अरी बरणा की शान्त कछार । तपस्वी के विराग की प्यार। छोडकर पार्थिव भोग विभूति, प्रेयसी का दुलभ वह प्यार । पिता का वक्ष भरा वात्सत्य, पुन का शैशव सुलभ दुलार । दुख का करके सत्य निदान, प्राणियो का करने उद्धार । सुनाने आरण्यक सवाद, तथागत आया तेरे द्वार । प्रसाद वाङ्गमय ॥३३८॥