पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३९२

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अरी बस्णा की शान्त कछार। तपस्वी के विराग की प्यार। मुक्ति जल की वह शीतल बाढ, जगत की ज्वाला करती शात । तिमिर का हरने को दुख भार, तेज अमिताभ अलौकिक कात । देव कर से पीडित विक्षुब्ध, प्राणियो से कह उठा पुकार- तोड सकते हो तुम भव बन्ध, तुम्हे है यह पूरा अधिकार । भरी बरुणा की शान्त कछार। तपस्वी के विराग की प्यार! छोड कर जीवन के अतिवाद, मध्य पथ से लो सुगति सुधार । दुख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मों का व्यापार । विश्व मानवता का जय घोष, यही पर हुआ जलद-स्वर-मन्द्र । मिला था वह पावन आदेश, आज भी साथी हैं रवि चन्द्र । अरी बरणा की सात कछार | तपस्वी के विराग की प्यार। तुम्हारा वह अभिनदन दिव्य,और उस यश का विमल प्रचार । सकल वसुधा को दे सन्देश, धन्य होता है बारम्बार । आज क्तिनी शताब्दिया वाद, उठी ध्वसो मे वह झकार । प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगन्त, विश्व वाणी का बने विहार *

  • मूलग व कुटी विहार के उपलक्ष्य में ।

लहर ॥३३९॥