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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४००

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आह रे, वह अधीर यौवन । मत्त मारत पर चढ उद्घान्त, वरसने ज्या मदिरा अश्रान्त- सिधु वेला सी घन मडली, अखिल विरनो को ढंक कर चली, भावना के निस्मीम गगन, बुद्धि चपला का क्षण नतन- चमने को अपना जीवन, चला था वह यधीर यौवन । आह रे, वह अधोर यौवन ।