पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मेरी आमो की पुतली में तू बन कर प्रान समा जा रे । जिससे क्न कन में स्पन्दन हो, मन मे मलयानिल चन्दन हो, क्रणा का नव अभिनन्दन हो- वह जीवन गीत सुना जा रे । खिंच जाय अधर पर वह रेखा- जिसमें अकित हो मधु लेखा, जिसको यह विश्व करे देखा, वह स्मिति का चिन बना जा रे। प्रमाद वाङ्गमय ।। ३५४॥