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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४०७

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बन, वसुधा के अचल पर यह क्या क्न क्न सा गया बिखर? जल शिशु की चञ्चल कोडा सा, जैसे सरसिज दल पर । लालसा निराशा में ढलमल वेदना और सुख मे विह्वल यह क्या है रे मानव जीवन ? कितना है रहा निखर । मिलने चलते जब दो क्न, थाकपण-मय चुम्बन दल के नस नस में बह जाती- लघु लघु धारा सुन्दर । हिलता डुलता चञ्चल दल, ये सब कितने है रहे मचल ? क्न कन अनन्त अम्बुधि बनते । क्व रुक्ती लीला निष्ठुर । तब क्यों रे फिर यह सब क्या? यह रोप भरी लाली क्यो? गिरने दे नयनो से उज्ज्वल आँसू के क्न मनहर। अचल वसुधा के पर। प्रसाद वाङ्गमय ॥३५६ ॥