पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४१२

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फैलाती है जब उपा राग जग कहता है उसका विराग वञ्चकता, पीडा, धृणा, मोह मिलकर विखेरते अधकार, धीरे से वह उठता पुकार- मुझको न मिला रे कभी प्यार । ढल विरल डालिया भरी मुकुल झुक्ती सौरभ रस लिये अतुल अपने विपाद विप में मूच्छित काटो से विंध कर वार बार, धीरे से वह उठता पुकार- मुझको न मिला रे कभी प्यार जीवन रजनी का अमल इन्दु न मिला स्वाती का एक विन्दु जो हृदय सीप में मोती बन कर देता लक्षहार, धीरे से वह उठता पुकार--- मुझको न मिला रे कभी प्यार । पागल रे । वह मिलता है कब उसको तो देते ही हैं सब आँसू के कन क्न से गिनकर यह विश्व लिये है ऋण उधार, तू क्यो फिर उठता है पुकार मुझको न मिला रे कभी प्यार । ? लहर ॥३६॥