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शशि सो वह सुन्दर रूप विभा चाहे न मुझे दिखलाना। उसकी निमल शीतल छाया हिमकन को बिखरा जाना । ससार स्वप्न बनकर दिन सा आया है नही जगाने, मेरे जीवन के सुख निशीथ । जाते जाते रुक जाना। हाँ, इन जाने की घडियो कुछ ठहर नही जाओगे ? छाया पथ मे विश्राम नही, चलते जाना। मेरा अनुराग फैलने दो, नभ के अभिनव कलरव मे, जाकर सूनेपन के तम म-- बन किरन कभी आ जाना। है केवल प्रसाद वाङ्गमय ॥३६४॥