सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अशोक की चिन्ता जलता है यह जीवन पतङ्ग जीवन कितना? अति लघु क्षण, ये शलभ पुज से कण कण, तृष्णा वह अनलशिखा वन- दिखलाती रक्तिम यौवन। जलने की क्या न उठे उमग । है ऊंचा आज मगध शिर- पदतल मे विजित पडा गिर, दूरागत क्रन्दन ध्वनि फिर क्यो गूंज रही है अस्थिर- कर विजयो का अभिमान भग? इन प्यासी तलवारो से, इनकी पैनी धारो निदयता की मारो उन हिंसक हुकारो नत मस्तक आज हुआ कलिंग। से, से, लहर ॥३७१॥ N