पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४२३

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? यह सुख कैसा शासन का शासन रे मानव मन का। गिरि भार बना सा तिनका, यह घटाटोप दो दिन का- फिर रवि शशि किरणो का प्रसग । -- यह महादम्भ का दानव- पीकर अनङ्ग का आसव- कर चुका महा भीषण रव, सुख दे प्राणी को मानव तज विजय पराजय का कुढग। सक्त फोन दिखलाती, मुकुटो को सहज गिराती, जयमाला सूखी जाती, नश्वरता गीत सुनाती, तब नही थिरक्ते हैं तुरग । वैभव की यह मधुशाला, जग पागल होने वाला, अब गिरा-उठा मतवाला- प्याले म फिर भी हाला, यह क्षणिक चल रहा राग-रग । काली काली अलको मे, आलम, मद नत पलको म, मणि मुक्ता की झल्का मे, सुग पी प्यामी रल्या मे, देवा क्षण भगुर है तरग । फिर निजन उत्सव शारा, नीरव नूपुर रथ माला, मा जाती है मधु बाला, सूखा लुढना है प्याला, बजती वीणा न यहाँ मृदग । प्रसाद वागमय ।। ३७२।।