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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४२४

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+ इस नील विपाद गगन मे-- सुख चपला सा दुख घन मे, चिर विरह नवीन मिलन मे, इस मरु-मरीचिका-वन मे- उलझा है चञ्चल मन कुरग । आसू कन क्न ले छल छल- सरिता भर रही हगचल, सब अपने मे है चञ्चल, छूटे जाते जाते सूने पल, खाली न काल का है निषग। वेदना विकल यह चेतन, जड का पीडा से नतन, लय सोमा मे यह कम्पन, अभिनयमय है परिवतन, चल रहा यही कब से कुढग । करुणा गाथा गाती है, यह वायु बही जाती है, ऊषा उदास आती है, मुख पीला ले जाती है, वन मधु पिङ्गल सध्या सुरग। आलोक किरन है आती, रेशमी डोर खिच जाती, दृग पुतली कुछ नच पाती, फिर तम पट मे छिप जाती, कलरव कर सो जाते विहग । जब पल भर का है मिलना, फिर चिर वियोग मे झिलना, एक ही प्रात है खिलना, फिर सूख धूल मे मिलना, तब क्या चटकीला सुमन रग? लहर ॥३७३॥