पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४२५

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ससृति में विक्षत पग रे। यह चलती है डगमग रे। अनुलेप सदृश तू लग रे। मृदु दल विमेर इस मग रे । कर चुके मधुर मधुपान भूग। भुनती वसुधा, तपते नग, दुखिया है सारा जग जग, फटक मिलते हैं प्रति पग, जलती सिक्ता या यह मग, वह जा बन परुणा को तरग, जलता है यह जीवन पतग । प्रसाद वाङ्गमय ॥ ३७४॥