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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४२६

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शेरसिंह का शस्त्र समर्पण "ले लो यह शस्त्र है गौरव ग्रहण करने का रहा कर म- अब तो न लेश मात्र । लालसिंह । जीवित कलुप पञ्चनद का देख, दिये देता है सिंहो का समूह नख दन्त आज अपना ।" "अरी रण रङ्गिनी। सिक्खो के शौय भरे जीवन की सगिनी। कपिशा हुई थी लाल तेरा पानी पान कर। दुमद दुरन्त धम दस्युओ की नासिनी- निकल, चली जा तू प्रतारण के कर से।" "अरी वह तेरी रही अन्तिम जलन क्या ? तो मुँह सोले खडी देखती थी नास से चिलियान वाला मे। आज के पराजित जो विजयी थे कल ही, उनके समर वीर कर मे तू नाचती लप-लप करती थी-जीभ जैसे यम की। लहर ।।३७५॥