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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४२७

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उठी तू न लूट नास भय के प्रचार को, दारुण निराशा भरी आखो से देखकर दृप्त अत्याचार को एक पुत्र-वत्सला दुराशामयी विधवा प्रगट पुकार उठी प्राण भरी पीडा से- और भी, जन्मभूमि दलित विकल अपमान से त्रस्त होकर कराहती थी कैसे फिर रुक्ती" "आज विजयी हो तुम और हैं पराजित हम तुम तो कहोगे, इतिहास भी कहेगा यही, किन्तु यह विजय प्रशसा भरी मन की- एक छलना है। वीरभूमि पञ्चनद वीरता से रिक्त नहीं। काठ के हो गोल जहा आटा बारूद हो और पीठ पर हो दुरन्त दशनो का त्रास छाती लडती हो भरी आग, वाहु बल से उस युद्ध मे तो बस मृत्यु ही विजय है। सतलज के तट पर मृत्यु श्यामसिंह की- देखी होगी तुमने भी वृद्ध वीर मूर्ति वह तोडा गया पुल प्रत्यावतन के पथ मे अपने प्रवचको से। लिखता अदृष्ट था विधाता वाम कर से। छल में विलीन बल-बल मे विपाद था-- विकल विलास का। यवनो के हाथो से स्वतनता को छीन कर, खेलता था यौवन विलासी मत्त पन्चनद- प्रणय विहीन एक वासना की छाया मे । फिर भी लडे थे हम निज प्राण पण से । प्रसाद वाङ्गमय ॥३७६ ॥